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- W3184077237 abstract "लोकतंत्र शासन का एक ऐसा स्वरूप है जिसमें सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित रहती है और जनता इस सत्ता का प्रयोग नियमित अन्तराल में होने वाले स्वतन्त्र निर्वाचनों मे ंएक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करती है। किसी शासन व्यवस्था को प्रामाणिक एवं व्यापक लोकतंत्र या सफलतापूर्वक क्रियाशील लोकतंत्र तभी कहा जा सकता है जब सच्चा लोकतंत्र किसी भी देश विशेष की जनता की आशा-आकांक्षाओं को पूरा करने से ही अपना सही मार्ग ढूंढ सकता है अपनी एक सही व्यवस्था की खोज कर सकता है भारतीय लोकतंत्र ने इनमें से अनेक आवश्यक शर्तो को पिछले कई वर्षो में पूरा किया है लेकिन इसे अनेक चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है जिसमें जाति, धर्म साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, धार्मिक कट्टरवाद आदि है जिनका सामना करने की आज भी जरूरत है। भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियों का सामना करने के लिए कुछ ऐसे सुधारात्मक उपाय करने की जरूरत है जो सार्वभौम हो, अर्थात सबके लिए हो, लेकिन लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब इसके नागरिक अपने चिन्तन तथा व्यवहार में समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, उत्तरदायित्व एवं सबके लिए आदर जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करेंगें। इसके साथ ही सफल लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि नागरिकों को धर्म, जाति, साम्प्रादियकता से ऊपर आना होगा तथा धर्म निरपेक्षता को बढ़ावा देना होगा एवं लोकतंत्र के लक्ष्यों को मूर्त रूप देने के लिए अग्रणी भूमिका भी निभानी जरूरी है। लेकिन वर्तमान दौर में भारतीय लोकतंत्र गम्भीर चुनौतियाँ एवं जातिवाद, साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरवाद का सामना कर रहा है। यही तत्व लोकतंत्र प्रणाली की कार्यशीलता एवं स्थिरता को कमजोर करते हैं अनुमान लगाया जाता है कि जाति व्यवस्था का अभ्युदय प्राचीन समाज में श्रम विभाजन के संदर्भ में हुआ था जो धीरे-धीरे जन्म पर आधारित कठोर-समूह वर्गीकरण में परिवर्तित हो गया। दिन प्रतिदिन इस व्यवस्था का स्वरूप जाटिल होता चला गया और सच यह है कि जातिवाद ही सामाजिक-आर्थिक असमानता को कायम रखने हेतु उत्तरदायी है। हमारे समाज की जाति आधारित असमानता भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गम्भीर चुनौती बनी हुई है। जाति एवं राजनीति के मिश्रण से जातियों का राजनीतिकरण एक अति गंभीर स्थिति है एवं वर्तमान भारतीय राजनीति में जातिवादकरण से हमारे लोकतंत्र में गम्भीर चुनौतियां उत्पन्न हो गई है। वर्तमान उदारीकरण एवं भूमड़लीकरण के युग के बावजूद जातिगत चेतना हमारे समाज से कम नहीं हुई है और जातियों को अधिकांशतः वोट बैंक राजनीति के रूप में उपयोग किया जा रहा है। धार्मिक कट्टरवाद भी साम्प्रदायिक ताकतों को धर्म एवं राजनीति दोनों का शोषण करने को बढ़ावा देता है। वास्तव में धर्म कट्टरवाद एक विचारधारा की तरह कार्य करती है जो रूढ़िवादिता की वकालत करती है ये धर्म हमारे बहुधर्मी समाज में हमारे सह असितत्व के ढांचे को तोड़ रहा है और यह एक पंथ निरपेक्ष संस्कृति के विकास के मार्ग में बड़ा बाधक है यह धार्मिक कट्टरता एवं साम्प्रदायिकता हमारे लोकतांत्रिक राजनीतिक स्थायित्व के लिए खतरा एवं मानवीय एवं मिश्रित संस्कृति की यशस्वी परम्परा को बर्वाद कर रहा है। अतः निष्कर्ष के रूप में हम यह सकते है कि भारतीय लोकतंत्र को ये सभी तत्व खोखला कर देंगे क्योंकि भारतीय समाज जातिगत-भेदभाव, धर्मबंधन से इस कदर जकड़ा हुआ है कि ना केवल समाज के बीच खाई पैदा हो रही है बल्कि यह तत्व राष्ट्रीय एकता के मार्ग में भी बाधा पहुंचाने का कार्य कर रही है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास का मत है कि ’’परंपरावादी जाति व्यवस्था ने प्रगतिषील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को इस प्रकार प्रभावित किया है कि ये राजनीतिक संस्थायें अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं है।’’ वास्तव में धर्म एवं जातिवाद भारतीय लोकतंत्र में बाधक सिद्ध प्रतीत हो रही है। अतः आवश्यक है धर्म निरपेक्ष राज्य ही लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना को सफल बना सकती है। इसके लिए देश के बुद्धिजीवी और राजनैतिक नेता इस संदर्भ में ईमानदारी के साथ सोचे और इस समस्या एवं इससे उत्पन्न अन्य समस्याओं का समाधान करने हेतु गंभीरतापूर्वक प्रयास करें। वैसे भी लोकतंत्र व्यक्ति की इकाई को मानता है ना कि जाति या समूह को, जाति, धर्म, और समूह के आतंक से मुक्त रखना ही लोकतंत्र का आग्रह है।" @default.
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