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- W4200119422 abstract "भारतीय संस्कृति में अध्यात्म अहम स्थान रखता है। यह धर्म, मूल्य, योग एवं नियम के रूप में भारतीय समाज के विविध जीवन पक्षों में अनुस्यूत हुआ है। इसने प्रकृति एवं मानव समाज के बीच संतुलन कायम किया है। प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन को लेकर भारतीय आध्यात्मिकता को तब और बल मिला जब पूरे पृथ्वी का पारितंत्र बिगड़ गया और अनेक प्रकार के पर्यावरणीय समस्याएँ जन्म लेने लगी। इन समस्याओं का वैज्ञानिक हल खोजने का प्रयास वैश्विक स्तर पर किया गया और जारी है। अंतत: इस सत्य के तरफ विद्वानों का ध्यान गया कि पारितंत्र असंतुलन के समस्या का कारण मानव मन में है। मानव का वह मन जो पहले अपने आप-पास के जीव-जंतु, पेड़-पौधे, मैदान एवं पहाड़ के प्रति भावनात्मक रूप से जुड़ा तथा आहलादित होता था आज पूरी तरह से उसके प्रति व्यावसायिक हो चुका है। प्रकृति के प्रति मानव के आध्यात्मिक मूल्य सर चुके है। समग्र अस्तित्व की अवधारणा खत्म हो गई है। आवश्यकता है कि वैदिक दर्शन के प्रकृतिवादी पक्ष का पुनर विश्लेषण करके सह अस्तित्व के भावना का उत्थान एवं विकास किया जाए। संपोषणीय विकास की अवधारणा को देखा जाए तो इससे संबंधित गांधी के विचार भी प्रासंगिक होते हैं जो सह अस्तित्व के भावना के पक्षधर थे। भारतीय धर्मशास्त्रों का मूल मानी जानेवाली श्रीमद भागवदगीता संपूर्ण प्रकृति का एक ही ब्रम्हा का विवर्त रूप मानती है जो इस दर्शन को प्रदान करती है कि प्रत्येक जीव इस ब्रम्हाण्ड की एक इकाई मात्र है। अत: इस ब्रम्हाण्ड की सत्ता के लिए सभी इकाईयों की सत्ता आवश्यक है। ऐसे में प्रकृति के प्रति अतिरेक एवं भोक्तावादी भावना व्यक्ति, समाज एवं प्रकृति तीनों के खुशहाली के लिए हानिकारक है ।" @default.
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